जन्नत खो चुकी है
जन्नत खो चुकी है
जन्नत यहाँ थी पर अब वो खो चुकी है
अब तो ये रुहें भी ज़मीं में सो चुकी है,
इंसान ही इंसान को मारने है निकला अब
जिंदा हे पर ज़िन्दगी खुद पे ही रो चुकी है।
मज़हब गुरु क़ुरान न सिखाता हैवनियात
दरिन्दगी का चोगा ओढ़े चल रही इन्सनियत,
मर रहा अपना ज़मीर मर रहा सुकून है
क्यूँ खुदा से लड़ना ही अब हमारा जुनून है।
मरी हुई माँ का दूध पीता अब एक बच्चा
बचपन को भी खा रही हेवानियत अब यूं कच्चा,
बह रहा आँखों से खून आंसू सूख चुके हैं
खेलने की उम्र में ये अनाथ हो चुके हैं।
न कबीर मीरा न सुदामा दुनिया में आयेगा
बस कंस और शकुनि अपनी चालें चलता जाएगा,
न होगें कृष्ण द्रोपदी का चीरहरण बचाने मे
जब औरत की इज्ज़त पे अब यु हाथ डाला जाएगा।
करते हो पूजा अब ढ़ोंग ना रचाओ तुम
कौन हे खुदा तेरा ये हमें ना बताओ तुम,
मरने के बाद होगी जन्नतें नसीब ऐसी
बेबुनियादि बातें करके खुद को ना बहकाओ तुम।
ज़ागीरें बांट तुमने जातियां भी बांट दी
घर भी तो बाँट दिए डोर रिश्तों की काट दी,
भाई भाई की इज़त न करे ऐसा दौर भी आ गया
मां बाप को घोंट तूने ममता भी तो छांट दी।
इस दुनिया से परे एक ऐसी भी दुनिया होगी
जहां सुकून होगा और दिलों में खुशियां होगी,
जा ढूँढ उस जहाँ के एक हसीं से टुकड़े को
जिस दुनिया में इंसानो की भीड़, हैवानो की कमियाँ होगी।