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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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कुछ कहना था

कुछ कहना था

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कुछ कहना था तुमसे

और सचमुच मैं उतावला हो गया था

तुम तक अपनी बात पहुंचाने में।

जेहन में बस इतनी सी सक्रियता थी

कि तुमसे कुछ कहना है


लगभग एकाग्र हो गया था

मुझे क्या पता अपनी इस मुहिम में

मुझे तुम्हारे हालात का ख़याल नही है

मसलन तुम्हारी व्यस्तताएँ थीं


कानफाड़ू शोर था

तेज रफ्तार से भागती हुयी जिंदगी थी।

मुझे तुमसे कुछ कहना था

आवाज दी,अनसुनी रह गयी

चीखा तुम तक बात पहुंचाने के जुनून में

पर फोन की ब्यस्त लाइनों की तरह

बात अधूरी रह गयी।


कभी कभी मैं सोचता भी था

तुमने सुन लिया है

बस रेस्पॉन्स नही कर रहे हो

कभी कभी लगता था

जानबूझ कर तुम अनसुना कर रहे हो

तुम्हे तो पता होगा अपनी स्थिति का

जैसे कि मुझे पता था अपनी कोशिश का।


एक छोटी सी बात

तुम तक न पहुंचा पाने से

निराश और हताश सा मैं

देर तक सोचता रहा

फिर आया एक निर्णय मेरा अपना।


तुमसे कुछ कहने से बेहतर है

वैसा ही खुद किया जाये

और मुझे लगा,जो तुमसे कहना था

वैसा तो मैं खुद भी नही करता

फिर जो कहना था तुमसे

खुद कर लिया मैंने।


आजकल अजीब सी नजरो से

लोग देखते है मुझे

और में कुछ किये जा रहा हूँ

वैसा ही जैसा कहना था तुमसे।


अब जब तुम्हारी नजर है मुझपर

मुझे लग रहा है

तुम मेरा कहना पढ़ रहे हो मुझमें

हां तुम मेरी व्यस्तताएँ समझ रहे हो

इंतजार में हो मुझसे कुछ कहने के लिये

मेरी फुरसत का।


कभी कभी सक्रियता भी

निष्क्रिय हो जाती है

कभी निष्क्रियता भी

सक्रिय हो जाती है।


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