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Manoj Kumar

Abstract

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Manoj Kumar

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कुछ अजीब अजीब

कुछ अजीब अजीब

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अब हमें लगता है कई वर्षों से मन के घोड़े थक गए हों

संकल्प भी विफल हो गया स्थाई बैठकर।

चिंतन मन किया नहीं जाता, अपना कार्य सही से।

तड़प होती है क्या करूंगा अपने समय पर।


वहां जाता हूं, कभी इधर आता हूं।

हमें कुछ अच्छा नहीं लगता है।

जैसे भरे तलैया में सूख गया हो,

सारा जल बन गया हो रेत।

अब मस्तिष्क में लहर भी नहीं उठती हैं।


कुछ अजीब अजीब लगते हैं यहां के उपवन।

कहीं हरे भरे दिखते हैं उपवन,

कहीं पूरा उपवन सूखा दिखते हैं।

नजारा बदला सा लगता है, पुराने बाग में।

कहीं बिना पवन के पत्ते टूट जाते है,

कहीं तेज तूफ़ान से टूट कर गिर जाते हैं।


अब तो भलीभांति जान भी नहीं सकता,

शूल चुभ रहा है चारों ओर।

एकांत स्थान पर खड़ा हूं वियोग में।

किसको बुलाऊं सब अजीब अजीब लगता है।

क्या हम सो रहे हैं किसी को पाने के खातिर में।



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