कुछ ऐसी है ये मेरी दुनिया
कुछ ऐसी है ये मेरी दुनिया
जब कभी इस बाहरी
दुनिया से थक जाती हूँ मैं।
या कभी होती हूँ
ज़्यादा ही भावुक।
या होती हूँ दो -चार
किन्हीं स्वार्थी रिश्तों से
जब मन चाहता है
कुछ अलग करना।
पर कुछ समझ नहीं आता
क्या सही क्या गलत
जब घेरने लगती है
मुझको निराशा।
जब खोजने लगती हूँ
शून्य में कहीं अपना आकाश
तो आशा की किरण जगाने,
खोलती हूँ।
मैं अपनी यादों की दुनिया को
और देर तक खोयी रहती हूँ
उन छोटी -छोटी बातों में
जो कभी किसी कागज पर उकेरी थी।
कहीं कुछ छायाचित्र देखकर
आती है होठों पर मुस्कान
शब्दों से सजी
मेरी सृजन की दुनिया।
मेरे सपने, मेरी संवेदनाएं
दिखाती हैं मुझे एक नयी राह
देती है मुझे नया जोश
कुछ ऐसी है ये मेरी दुनिया।