कठपुतलियां
कठपुतलियां
बचपन मे देखते थे
कठपुतलियों का खेल
बाज़ीगर की उंगलियों पर नाचती
रंग बिरंगी कठपुतलियां।
मन करता था
बना दे मुझे भी कोई कठपुतली
और नचाए दाएं बाएं
कभी खींच ले ऊपर
कभी नीचे पटक दे !
घर वापिस आ कर
बन जाती थी मैं
काठ की पुतली सी
हाथ रख रख कर कमर पर
नाचती फिरती उसके जैसे।
आज बरसों बाद
समझ पाई हूँ त्रासदी
कठपुतलियों के जीवन की
और वेदना मन की!
शुक्र है कि वे पुतलियां थीं
काठ की !
बुरा लगता है
जब नचाता है कोई
हाड़ मांस की पुतली को
कभी दाएं कभी बाएं
खींचता है कभी ऊपर
फिर पटक देता है नीचे।
आज समझ पाई हूँ
कि आजादी खोना
और दूसरे की उंगलियों पर
नाचना क्या होता है !