ऐ अच्छी औरत
ऐ अच्छी औरत
सुनो आदर्श औरत
थक नहीं गयी क्या तुम
आदर्श होने का बोझ ढोते ढोते ?
सुंदर,सुशील, सुसंस्कृत, सुघड़
इतने लबादों के नीचे दबे दबे
दम घुटता है तुम्हारा
मैं जानती हूँ।
लगा कर कमरे की कुंडी अंदर से ,
सर का पल्लू और तन की साड़ी
उतार फैंकती हो ।
पहन कर अपनी पसंद के कपड़े
अपने आप को शीशे मे
निहारती हो ।
मुस्कुराती हो...
और सराहती हो खुद को।
लगा कर म्यूजिक धीरे से
कि आवाज़ बाहर न निकल जाए
अपने मनपसंद गीत पर थिरकती हो
और साथ साथ गुनगुनाती हो।
कुंडी खोलते ही फिर ओढ़ लेती हो लबादे
अच्छी बेटी, अच्छी बहु, अच्छी पत्नी के।
सुनो स्त्री,
मत मारो अपने मन को इतना
मत घोंटो गला अपनी ख्वाहिशों का!
तोड़ डालो ये रूढ़ियाँ,गले सड़े रिवाज,
रिवाजों के नाम पर बजते बेसुरे ढोल।
रीतियों के नाम पर छीनी गयी
तुम्हारी आज़ादी, तुम्हारा अधिकार है।
पहनो ,जो पसंद है तुम्हें,जो आरामदेह है।
नाचो, गाओ,खिलखिलाओ
ठहाके लगाओ...
मत डरो बेहया,बेशर्म, बिंदास
कहलाने से।
मैं जानती हूँ कि अपनी महत्वाकांक्षाओं
का गला घोंटा है तुमने
अच्छी बनने के लिए।
लेकिन याद रखना
कि जिस दिन ,कैद कर के रखे गए
ख्वाहिशों के परिंदों में से
एक ने भी उड़ान भरी
तो छिन जाएगा तुम से
"अच्छे" होने का ताज।
इसलिए ऐ अच्छी औरत !
खोल दो ये पिंजरा
उड़ने दो उन्मुक्त
ख्वाहिशों के परिंदों को।
डोल जाओ मस्त बावरी हवा सी
बह जाओ किनारे तोड़ बहती नदी सी।
कुलांचे भर लो चंचल हिरणी सी
नाप लो ये पूरी धरती
छू लो अनंत आसमान !
अच्छी होने से इतर
अपने नाम को मिलने दो
एक नयी पहचान।