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लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

Abstract

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लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

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"कठपुतलियां"

"कठपुतलियां"

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बचपन से कठपुतली का खेल,

हमको लगता है प्यारा।

रंग बिरंगी कठपुतली नाचे,

ख़ुश होता है मन हमारा।


कठपुतली के खेल में सारी गुड़ियाँ,

धागे से बंधी हैं रहती।

धागे से आजादी वो पाना चाहे

काश! मन से अपने वो चल सकतीं।


हम सब धरती पर इंसान,

कठपुतली जैसे रहते बेजान।

कुछ वर्षों हम में प्राण फूंक कर,

कठपुतली जैसा नचाता है भगवान।


वर्षों पहले नारियां भी,

कठपुतली जैसा जीवन जीती।

पुरूष प्रधान समाज में नारी,

अन्नाय शोषण का शिकार बनती।


बदल गया नारी का अब तेवर,

जागरूकता से पहचाना अधिकार।

कठपुतली जैसा अब न रह सकतीं,

न सहती अब अत्याचार।


समाज, देश बने जो ठेकेदार,

कठपुतली जैसा हमें नचाते।

जाति धर्म व कुछ लालच देकर,

अपने मर्जी से हमें चलाते।


किसी के कठपुतली बनने की बजाय,

अपने अस्तित्व को हम पहचानें।

आत्मसम्मान व अस्मिता के लिए,

हम ख़ुद ही निर्णय लेना जानें।


निज स्वार्थ की पराकाष्ठा में ही,

मनुष्य कठपुतली बन जाता है।

जीवन में अपना असली किरदार,

सच में वह समझ न पाता है।


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