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Shalini Mishra Tiwari

Abstract

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Shalini Mishra Tiwari

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कठपुतली

कठपुतली

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समय के हाथों

कठपुतली बन गई हूँ।

जब जिसने जैसे चाहा

नचा दिया।


मेरी सोच

मेरा जीना कुछ नहीं।

मेरा अस्तित्व भी

दूसरे पर निर्भर।


क्या यही मेरी परिणति है

क्या यही गति है।

क्यों पाया ऐसा जीवन

कि दूसरों के

इशारों पर

नाचती फिरूँ।


मेरा मान सम्मान कहाँ है

अन्तस्थल में

तूफ़ान छुपाये,

होंठों पर झूठी मुस्कान

आंखे बरबस ही 

भर आये।


पर आह तनिक

भी

न निकले।

है जिंदगी अपनी

पर डोर किसी और 

के हाथ में क्यों ?


क्या कभी स्वतंत्र होऊँगी

मेरी डोर क्या कभी

मुक्त होगी ?

जब मैं कठपुतली नहीं

इंसान कहलाऊंगी।


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