कठपुतली
कठपुतली
मूक प्रतिबिंब सी होकर लाखों कहानियां बुन जाती,
कुछ आग सी तपती, कुछ राख सी उड़ जाती।
राग-रंग की नीर निधि का बोझा लेकर पनपी,
पत्थर की आंखों में स्वप्न अनेकों लेकर जन्मी।
एक ही जीवन में इन्द्रधनुषी किरदार निभाती,
सबकी गाथा गाती और चुपके से सो जाती।
मर्यादा- रूपी सूत्र के इशारों पर वो चलती,
अस्वतंत्रता से विवश होकर कोने में पड़ी फफकती।
सबके मनोरंजन का बस एक साधन ही वो लगती,
कालकोठरी की वो एक बेजुबान कठपुतली थी।
रंगमंच के खेल का किरदार तो बस एक बहाना था,
अंधे-बहरों की महफिल में एक सच्चा किस्सा सुनाना था।
सब कहते रहे खाम़ोशी ही तो उसका गहना है,
एक बार ही पूछ लेते क्या तुम्हें भी कुछ कहना है।