शमशान किनारे
शमशान किनारे
बैठ जाती हूँ कभी मरघट पर,
शायद अस्तित्व का परिज्ञान मिल जाए।
धधकते शव में जुम्बिश का कोई
नया नामोनिशान मिल जाए।
जीवित है मनुष्य चेतना लुप्त है कहीं पर
मुर्दों में ही सही इन्द्रीय-ज्ञान मिल जाए।
सुलगती रही रात भर मिट्टी यूं अकेले,
कोई तलाशें तो मोक्ष की मशाल मिल जाए।
इस घाट के किनारे हीन बुद्धियों ने देह त्यागी है,
अंत्येष्टि से पहले ही किसी को निर्वाण मिल जाए।
रक्त ही रक्त के लिए लड़ता रहा यहां रक्त से,
बर्बाद अब्तर सोच का परित्याग कर जाएं।
हर वक्त जलता ही दिखेगा, शख्स नया यहां आग में,
पल पल मिलता है यहां सबका अस्तित्व खाक में।
जीवन-मृत्यु चक्र है चलता रहेगा परस्पर ,
नेत्र ज्योति खोल देखो, जिंदा श्मशान मिल जाए।
