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Yaswant Singh Bisht

Abstract

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Yaswant Singh Bisht

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कसूर किसका

कसूर किसका

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उसके बेटे उसे छोड़कर जा चुके हैं

उसका पति अब नही रहा

पूरे गांव में अकेले

वह नहीं रह सकती

उसे अकेलापन खलता है,


वो पहाड़ से उतरकरशहर में आई है

खुद आधी बेरोजगारी वाले शहर में

उस बूढ़ी को काम नहीं मिला

उसकी मजबूरी ने उसे सड़क पर ला छोड़ा

मैं उसके पहनावे से बता सकता हूँ


वह कोई पहाड़ी औरत है

उसके गले का गलोबन्द

उसकी नाक में बाली

हाथों के कड़े, पैरों की चैन


उसके बैठने का तरीका

बात करने का अंदाज

मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ

वह कोई पहाड़ी औरत है


लेकिन अब उसके मजबूत हाथ

डर डर कर कुछ मांगते हैं

गर्व और मेहनत से बिताई जवानी

अब उसे रो रोकर याद आती है


भूख मिटाने के लिए

वह मजबूर है

लेकिन वो दर्द भरी आंखे

मैं कैसे भूल सकता हूँ


अगर बुढ़ापे में मुझे ऐसे रहना पड़

मैं मरना पसंद करुंगा

लेकिन उस मां की ममता

अभी भी जिंदा है

वो अपने बेटे को देखना चाहती हैं।


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