कष्ट
कष्ट
कष्ट वो है जिसका आधार ही मनुष्य का उद्धार करना,
उसके कर्मों का और विवेक का उसकी बुद्धि का
उसके मनो स्थिति को स्थिर करने का मार्ग है l
उसके मन में करुणा के बीज का अनुसरण करना और
उसकी आत्मशक्ति की वृद्धि और उसकी शुद्धि करने का
उसकी जीवात्मा का उसके मुकुर से परिचय कराने का एक निमित रास्ता है l
कुछ मनुष्य ऐसी परिस्थिति में स्वयं को जान नहीं पाते
खुद की क्षमता से अवगत नहीं हो पाते l
खुद के कष्टों को दूसरे के कष्टों से और
समाज के कष्टों से अधिक महत्व देते हैं
कष्टों को सहन करना उनके मार्ग पर संयम धारण करना
अपने धर्म का वहन करना ही मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है
लेकिन वो खुद पर और नियति पर भरोसा रख नहीं पाते
जवाब खुद में ढूंढ़ने की वजह से वो सवाल
दूसरी से और दोष भी दूसरे को देते हैं
अगर सभी ये जान पाए की
भाग्य और कुछ नहीं उसके खुद के विचार खुद के कर्म और
खुद की परिस्थिति के अनुसार लिए निर्णय और नियति ने जो निमित किया
बस उन सब का एक परिणाम है तो
व्यर्थ की खुद को चिंतन में लीन नहीं करेगा l
जिस तरह एक वृक्ष की शाखाओं में अनेक फल जन्म लेते हैं
कुछ उस पर से गिरते हैं तो कुछ उस पर रहते हैं वही सूख जाते हैं
लेकिन वृक्ष की जड़ वो अपना स्थान नहीं छोड़ती चाहे
कितनी ही परिस्थिति में समय और वातावरण में बदलाव ही क्यों न आ जाए
उसी तरह हमारा दृढ़ निश्चय हमारा ज्ञान हमारा विवेक
उस पेड़ की जड़ की भाँति होते हैं और पीड़ा मोह उस पेड़ की शाखा और
उसके फल के स्वरूप होता है कुछ से हम आगे बढ़ जाते है
तो कुछ हम अपने समीप रख के उनसे सीखते रहते है l