कशती
कशती
शांत और शीतल सी,
या कल कल करती, उन्मत सी।
यह जिंदगी,एक नदी सी।
पार तो जाना है,सभी को,
पर तैयारी नहीं है, किसी की।
कुछ कशतीयां पहुंच गयी हैं, उस पार,
कुछ ऊलझी मझधार।
अभी भी जुड़नी बाकी हैं कुछ खपच्चियां,
कुछ नाविक करते अपने सपनों की नाव तैयार।
लहरों के संग अठखेलियां करती सुरज और चांद की किरणें,
जैसे सुख दुख खेले आंख मिचौली जीवन में।
चलते ही जाना है, कलियुग में राम न लगायेंगे केवट को पार,
है कर्म का युग यह,चलता चल चलता चल, बिना थक-हार।