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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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करिश्मे की उम्मीद

करिश्मे की उम्मीद

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करिश्मे की उम्मीद तो सब किया करते हैं

पर मेहनत से वो पेट नही भरा करते हैं।

सोचते हैं,कोई आयेगा औऱ काम कर देगा,

खुद पर लोग भरोसा नही किया करते हैं

पेड़ भले ही दिख जाये उन्हें आम का,

मुँह में गिरने का,इंतजार किया करते हैं

करिश्मे की उम्मीद तो सब किया करते हैं

पर मेहनत से वो पेट नही भरा करते हैं।

बेबसी का रोना सब लोग रोया करते हैं

आंसुओ को वो शोला नही किया करते हैं

गर मेहनत करे,जीवन स्वर्ग हो सकता हैं,

पर मेहनत को वो बस भूत माना करते हैं

कोई भी पत्थर तब ही हीरा बन सकता है

जब मेहनत की वो रगड़ खाया करते हैंं

 लोग बिन तपे सोने होने की सोचा करते हैं,

बिन तपे तो आंसू भी हमे डराया करते हैं

करिश्मे की उम्मीद तो सब किया करते हैं

पर मेहनत से वो पेट नही भरा करते हैं।

भाग्य उनका गुलाम हैं,जो श्रम का आम हैं

मेहनत से ही साखी करिश्मे हुआ करते हैं

हर काज ख़ुदा की मर्जी से हुआ करते हैं,

पर श्रम के आगे तो खुदा झुका करते हैं

कभी वो मूर्ति में प्रकट हो जाया करते हैंतो,

कभी मस्जिद में अजान हुआ करते हैं

श्रम से साखी पत्थर भी पिघला करते हैं

कभी मांझी के इरादों में वो झुका करते हैं

श्रम से दरिया अंगूठी से निकला करते हैं

परिश्रम से फ़लक में मकां हुआ करते हैं

मेहनत से ही साखी करिश्मे हुआ करते हैं

बिना मेहनत पाना,कायरों का होता खाना,

कायर ही भाग्य भरोसे बैठे रहा करते हैं

मेहनती तो शूलों में फूल उगाया करते हैं।


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