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Gulshan Sharma

Abstract

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Gulshan Sharma

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कोई ना जाने सार मेरा

कोई ना जाने सार मेरा

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ना कोई घर घरबार मेरा,

ना कोई दिन इतवार मेरा,

विद्रोह कवि का श्लोक हूँ मैं,

कोई ना जाने सार मेरा।


मैं कृष्ण तेरा पैगम्बर हूँ,

मैं धरा तेरी मैं अम्बर हूँ,

मुझसे उठता ना भार तेरा,

कोई ना जाने सार मेरा।


मुझे मीरा ने भी पूजा है,

कबीर कहाँ कोई दूजा है,

नाम मेरे ही क्यों पर,

कर डाला है संहार मेरा,

पढ़ा किये सब वेद मुनि, 

कोई ना जाने सार मेरा।


पास हूँ पर मिला नहीं,

मैं उगा किया पर खिला नहीं,

मैं शिलान्यास का पत्थर हूँ,

जो टूट गया पर हिला नहीं।


इमारतें सब बिखर गईं,

होना लगता है बेकार मेरा,

विद्रोह कवि का श्लोक हूँ मैं,

कोई ना जाने सार मेरा।


सूखे में जैसे प्यास हूँ मैं,

पानी की जैसे आस हूँ मैं,

तुझमें और सबमें बस्ता हूँ,

हाथ तो रख एहसास हूँ मैं।


ना ज्ञान मेरे के पास हुआ,

बस जपता है तू नाम मेरा,

हाथ सभी के लाल रंगे,

कोई ना जाने सार मेरा।


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