कोहरा
कोहरा
कभी दौर था मुलाकातोँ का
आज वक्त है सिर्फ बातोँ का
चाह कर भी किस से कब मिलेँ
कब और कैसे ये तय करेँ?
मिलने की जब भी उमंग जगे
पर उससे ज़्यादा तो भय लगे
खुद के लिए भी है सोचना
अपनों को न मुश्किल में डालेंगे
आयें बाहर इस बुरे दौर से
मुलाकातोँ को अभी टालेंगे
है घना अँधेरा तो सब तरफ
पग बढ़ेँ तो बढ़ेँ बोलो किस तरफ
हाथ को हाथ ना सुझाई देे
मंज़िल भी तो ना दिखाई दे
गम का कोहरा भी है बड़ा घना
हँसना मुस्कुराना है सब छिना
मानव ये तूने क्या किया?
रिश्तोँ को बन्दी बना लिया
हाथ तक ना बढ़ा सकेँ प्रेम का
गले मिलना तो दूर की बात है
कोई किरण भी ना दिखाई दे
जाने कितनी लंबी ये रात है
कब खिलेगी वो सुहानी सुबह
सुख का सूरज जब हो चमक रहा
फिर खिलेगी धूप वो गुनगुनी
रिश्तोँ को दे जो रोशनी
फिर बहेगी प्रेम की वो बयार
महकेंगे रिश्ते जो हैं बेजार
सुख दस्तक देगा द्वार पे
हम हाथ पकड़ के ले आयेंगे
फिर हाथ बढ़ेगा प्रेम का
फिर गले हम सबको लगायेंगे
घना कोहरा भी छँट जायेगा
इंसान फिर खिलखिलाएगा।।