कमबख्त आ गया दिसंबर...!
कमबख्त आ गया दिसंबर...!
दिसंबर में ही उठी थी उसकी डोली...
कम्बख्त आ गया फ़िर से दिसंबर ...
मेरी आशिक़ी का गला घोंटकर,
किसी और के गले का हार बनी थी वो...
मेरे दिल के सुनेपन का अंगार बनी थी वो...
कैसे भूल सकता हूँ,जिस्म से रूह और जान निकली थी,
सोलह सिंगार किये,
लाल जोड़ो में वो सवार निकली थी,
ऐसा लगता था उस वक़्त,
मेरे दिल पे ख़ंजर मार निकली थी वो,
भला कैसे याद नहीं होगा मुझे,
मेरी मोहब्बत कि बरसी का है दिन ये...
और वो अपने बेटे का नामकरण कर रही है...
जालिम ये मेरे पे जुल कर रही है
अपने बेटे का नाम मेरे नाम पर रख रही है,
उसका मुझे जलाने का अंदाज निराला है,
जालिम ने मुझको तड़पाने का क्या तकनीक निकाला है
मेरी मोहब्बत का छोड़ के जाना याद आ रहा है
ऐ दिसम्बर फिर तेरा तड़पाना याद आ रहा है
यही वह सर्द राते है जिनमे हम
एक दूसरे से बाते किया करते थे
इसकी ठंड को यू बेकार किया करती थी
मेरी महबूब यू दिसम्बर को मार दिया करती थी,
दिसम्बर तुझको ये बात भाया नही गया,
मेरा अपना गया छोड़ कर,कोई पराया नही गया,
ऐ दिसम्बर तो साल में आ भी जाता है
तुझे क्या खबर महबूब जब जाए फिर कहा आता है
ऐ दिसम्बर तुझे कही मेरी बद्दुआ ना लगे
ऐ दिसम्बर फिर तू मुझे कही दिसम्बर ना लगे
और यहां तनहा जल रही है मेरी ज़िन्दगी,
ऐसा लगता है आ गया कोई सितमगर...
कम्बख्त आ गया फ़िर से दिसंबर...!