कमाई
कमाई
मुफ़लिस हूँ साहब लेकिन नाखुश नहीं
अपनी धुन में मगन रहता हूँ
घूमता हूँ दर बदर धूल धककड़ में
खुले आसमान, सूरज के ताप तले चलता हूँ
ठेल पर बेचता हूँ चीजें रोज़मर्रा की
नहीं मेरा कोई बड़ा योगदान दुनिया में
मगर निकल पड़ता हूँ हर सुबह
जैसे निकले सिपाही मुस्तैद जंग में
मज़बूत इरादे, चिलचिलाती धूप और बारिश में
चलने रहने का हौसला देते हैं
कोने के मकान में बूढ़ी अम्मा
कुछ न कुछ रोज़ मंगा लेती हैं
सामान खरीदने के बहाने दुआ सलाम
कुछ बातों में अकेलापन बांट लेती हैं
कभी खिड़की से छोटी बच्ची
अंकल कह कर पुकारती है
उसकी आँखों और प्यारी बोली मुझे
गांव में अपनी बिटिया की याद दिलाती है
कभी कभी मस्जिद के चचा झिड़क भी देते हैं
पर बुरा नहीं मानता, उनकी बातों में मेरे पिता झलकते हैं
और फिर वो पुलिस हवलदार नुक्कड़ पर मिल जाता है
कभी लेता है कुछ सामान, तो कभी चाय भी पिला जाता है
नहीं मेरे पास टाई बेल्ट की चाकरी मगर
मुझे मेरे इस काम में परोपकार नज़र आता है
फटी जेब से मेरी अक्सर कुछ न कुछ रिस जाता है
ईमानदारी की कमाई में तब भी पेट और मन भर ही जाता है।