कलियुग
कलियुग
माथे पर मुकुट सोहे,
हाथों मे गदा लेवे,
उर मै जाके सदा सियाराम,
जाके नाम अंजनिसुत हनुमान,
किष्किंधा नगरी से निकले
पवन वेग से उड़ते ही चले,
उतरे धरा पर देखा कलियुग की छाया,
कैसा धरती पर संकट आया,
हाय! कैसी दौलत की माया,
धन ने रिश्तों को गवायाँ,
स्वार्थ व लालच का हर ओर डंका,
घर घर बनती जा रही सोने की लंका,
ताड़का बनती जा रही नारी,
सुख की इच्छा हर परिवार पर भारी,
बेटी भी सूर्पनखा बनती जाती,
झुठ साँच सब का खेल रचती रहती,
मोह का नागपाश मे सब जकड़े जाते,
अब किसको कौन कितना समझाते,
धर्म - ज्ञान- सदाचार शब्द फीके पड़ते जा रहे,
बस, छल कपट शतरंज के दाँव चलते रहते.....।