कलाम कलम का
कलाम कलम का
कलाम कलम का हो तुम
तम्हे किस से मैं लिखूं
स्याही शाहिद हो जाते
यूँ ही लिखते लिखते।
हवा की रवानगी हो तुम
कैसे मैं तुम्हें देखूं
आंखें नम हो जाते अक्सर
महशुश करते करते।
कलमा प्यार का लिक्खा
बलमा के नाम जो
खाम बे-नाम ,खत परेशां
ठिकाना ढूंढते ढूंढते।
सुबक सुबक के सुबह
अस्क की आंसूं जो रोती,
खुसी की फुहार है ये
फलक तक छलक जाते।
परख तो लो एक बार
धार कितना औजार मैं तेरी,
मौका परस्त दोस्त यहां
दुश्मनी आजमा भी लेते।
मरहम लगाने चले थे तुम
जिन ज़ख्मों को मेरी,
खुद ही भर चुके बेचारे,
लहू खुद की पीते पीते।।
मत कहो बेपरवाह उन्हें
जिन्हें तुम कोशते अब तक,
नींदें परेशां उनकी आज भी
करवटें बदलते बदलते।।
बेतरतीव भटकते लफ़्ज़ों को
शक्ल नवाज़ने के बाद
कायल कलमकार कलम की
कलाम पढ़ते पढ़ते।