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Mayank Kumar 'Singh'

Abstract

4.0  

Mayank Kumar 'Singh'

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कल रात

कल रात

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कल रात को आकाश में

बादलों को मचलते देखा

कुछ आहिस्ता आहिस्ता गुजर रहे थे

तो कुछ तेजी से भागे जा रहे थे

वैसे इन्हीं के बीच में

कभी-कभार कुछ सितारें भी

कभी तेज तो कभी मध्यम

उस आकाश में चमक रहे थे

लेकिन उनमें कुछ ऐसे भी सितारें थे

जो बिल्कुल खो ही गए थे

सवेरा हो गया पर वह जहां खोए

फिर वापस न दिखे

रात्रि भी सुबह की बाहों में खुद को

मिटाकर ख़ाक हो गई थी

लेकिन खोए सितारें अंबर में न लौटे

कल रात को आकाश में

बादलों को मचलते देखा


वैसे कल कुछ बादल ऐसे भी थे

जिनके रूप रंग में फर्क था

कोई मानो फकीर सा था

तो कोई एक शासक सा था

जितनों को देखा मैंने

उनमें उतने ही रंग, उतने ही गुण थे

पर हां उनमें कुछ ऐसे भी थे

जो कुछ नीर को लिए

भाग रहे थे खुद में खुद से ही

उस भूमि को तृप्त करने

जिसको अपनों ने ही झुलसा दिया था

कल रात को आकाश में

बादलों को मचलते देखा



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