कितना बदल गया हूं, मैं
कितना बदल गया हूं, मैं
लोग कहते हैं कि बदल गया हूं, मैं!
मगर मेरा अन्तःकरण कहता है कि कहां बदला है तू !
वही बचपन की ही तरह खिल- खिलाकर हँस पड़ना,
छोटी-छोटी बातों पे रो पड़ना!
गलती होने पर माफ़ी मांगने से कभी न हिचकना !
जैसे पिता जी से भी पैसे मांगने में भी कभी नहीं हिचकता था।
वही चेहरे पर सवार पुराना गुस्सा ,
जैसे अपनी माँ से रूठ कर हो जाता था।
सबको अपना समझना,
जैसे कि बचपन में लड़ झगड़ कर फिर,
दोबारा साथ मिलकर खेलता था ।
वो सारे गुण तो आज भी हैं मुझमें ,
फिर भी लोग
जाने- अनजाने में कहते हैं कि कितना बदल गया है तू !
मैं यह सुनकर सोच में पड़ जाता हूं!
क्या सच में बदल गया हूं मैं?
या वो इसलिए कहते क्यूंकि समय के साथ अब सच में बदल गया हूं ,मैं! या
क्या वो इसलिए कहते की अब मेरी हर वो जिद पूरा करने वाली मेरी माँ नहीं रही!
क्या वो इसलिए कहते की ,
अब मेरे हर गुस्सा को सहने वाली मेरी माँ नहीं रही?
या वो इसलिए कहते की मेरी हर बात को सुनने वाले मेरे पिता जी नहीं रहे!
या इसलिए कि दुनिया में मेरे रिश्ते - नाते का वजूद नहीं रहा?
मैं किसी पे आधिपत्य क्यूँ जमाऊं ?
आखिर और लोग की मेरी तरह रिश्ते - नाते बिल्कुल भी नहीं है!
ऐसा थोड़े है !
तो आखिर ये बात क्यूँ नहीं समझ पाता हूं, मैं!
क्यूँ नहीं समझ पाता कि मेरी तरह औरों का जीवन नहीं है!
अन्य के पास परिवार है, रिश्ते हैं, नाते हैं !
ये बात आखिर मुझे क्यूँ नहीं समझ आती ?
इसलिए कि बदल गया हूं, मैं!
या की मुझे परिस्थितियों ने बदल दिया है ।
कुछ भी हो लेकिन लोग कहते हैं बदल गया है तू !
गाहे-बगाहे अब मुझे भी तसल्ली हो गयी कि
हाँ! बदल गया हूं मैं !
तो आखिर किसके लिए बदल गया हूं?
क्या उन आंसुओं की अब कोई कीमत नहीं रही?
क्या अब मैं ये मान लूँ की अब मेरा किसी पे कोई हक नहीं?
अगर हक होता तो आखिर लोग क्यूँ कहते की
अब बदल रहा है तू!
अब मुझे भी विश्वास हो गया कि बदल गया हूं, मैं
मगर क्यूँ बदल गया हूं, मैं ?
और कितना बदल गया हूं मैं ?