क़िस्मत
क़िस्मत
ना समझूँ मैं लिखूँ क्या ?
बिन तेरे मैं सोचूँ क्या ?
लिख दूँ कुछ जो मेरा हो जाए,
पन्नों से निकल हक़ीक़त बन जाए।
ऐ खुदा सुन ले तूँ मेरी पुकार,
कर दे मुझे तूँ उसे स्वीकार।
क़िस्मत में ना तो,
अभिनय से ही सही।
हक़ीक़त में ना ख़्वाबों में ही सही,
हर पन्ने पे किताबों में ही सही।
लिख दे तू मेरी क़िस्मत में कुछ ऐसे,
हर फ़िल्मों की, कहानी हो जैसे।