किसान दुर्दशा कविता
किसान दुर्दशा कविता
बेबस और लाचार किया
अन्नदाता कहलाने वालों का
जाने कब से तिरस्कार किया
हरी-भरी धरा हमसे है
बगिया उपवन हम महकाते हैं
करते दिन-रात परिश्रम
अन्न दाना सब तक पहुंचाते हैं
हाल बेहतर ना हो सके
ठिठुर ठिठुर कर हम सब रहते
जाड़े की रात बिताते हैं
कर्ज में डूबा रहता किसान
सुख चैन सभी खो जाता है
परिश्रम का सही भुगतान
सरकार यहां की ना कर पाती है
खुद तो रहते महलों में
मेहनत सड़कों पर सस्ती बिक जाती है
ऐसी दुर्दशा हमारे किसान की
जाने कैसे इनको रास आती है
खेती कर जीवन बिताएं
खून पसीना दिन रात एक कर जाएं
अपना हक पाने की खातिर
सरकार का दरवाजा खटखटाये
मेहनत का फल मिलता ना इनको
मारकर हक इनका महंत खा जाएं
ऐसा हमारा किसान बेचारा
बदहाली में जीवन बिताता है
बदहाली में जीवन बिताता