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Sunita Katyal

Abstract

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Sunita Katyal

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कई बार ऐसा होता है

कई बार ऐसा होता है

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पहले मेरे साथ कई बार ऐसा होता था

मुझे कोई भी आकर कुछ भी कह कर चला जाता था

मै आगे से बोल ही नहीं पाती थी

सच कहूं मुझे समझ ही नहीं आता था 

कि इसका क्या जवाब दूं

बाद में सोचती अरे ये कहना चाहिए था

उनकी ये बात गलत थी 

मुझे उसी समय उनको टोक देना चाहिए था

नहीं कह पाई तो नहीं कह पाई

बस फिर कई दिनों तक कुढ़ती रहती 

पर अब मै ठोकर खा कर कहिए या कुढ़ कुढ़ कर कहिए

सीख गई हूं काफी कुछ

कोई भी कुछ कहे उससे पहले ही मै 

अपने को अपने भीतर ही समेट लेती हूं

ठीक एक कछुए की तरह

ताकि दूसरे की कुछ कहने की हिम्मत ही ना पड़े

अगर फिर भी कोई बोला तो अब डरती नहीं

मीठी तीखी भाषा में सब अगला पिछला सुना देती हूं

आखिर कब तक सहती रहूंगी

क्यों अगले जनम के लिए 

इस जनम के गिले शिकवे ले कर जाऊं

इस जनम में हिसाब क्यों ना सब निपटा ही जाऊं

बस अब एक यही लक्ष्य रखना है

जो प्यार दे उसे गले लगाओ

जो ना दे उसकी वो जाने या रब जाने

   


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