ख्वाहिश
ख्वाहिश
ख्वाहिश है दिली मेरी,
हो जाये रुखसत।
नफरत इस जमाने से ।
जमाना 'एक ' बीत गया ,
नहीं पा सका प्यार
किसी बहाने से।
मंजर है गमगीन
देखता हूँ जिधर
हर तरफ भयावह
है मंजर ।
खुदा रहमत कर
हो सके तो लौटा
खुशी किसी बहाने से।
कल तक जिन घरों मेंं
लगती थी चौपालें
बैठ बड़े-बुजुर्ग
हुक्का पीते ,खेलते ताश
कल तक इन्हीं घरों मेंं
गूंजती थी मासूमों कि किलकारीयाँ।
जाने किसकी लगी नजर
जाने कैसी चली हवा
पल भर में बदली फिजा
और आज उन चौपालें में
उन घरों में पसरा सन्नाटा
खाली पड़ी सड़कें
खाली बाजार
नहीं कम किसी विराने से ।
ख्वाहिश है दिली मेरी
हो जाये रूखसत
नफरत इस जमाने से।।
