ख्वाहिश मेरी
ख्वाहिश मेरी
बिगड़े कभी तेरी कार और खड़ी मिले तू,
बेबस-सी किसी रास्ते पर,
कपड़े हो रहे हों मैले तेरे और,
उजड़ा सा मुँह, कुछ काला-काला।
लिपिस्टिक की कोर और काज़ल की डोर,
हदें तोड़ रही हों अपनी,
ऐसे में मैं किसी काम आऊँ तेरे,
और ‘शुक्रिया’ जैसा कुछ।
तेरे होठों पे आने से पहले ही,
‘इसकी कोई जरुरत नहीं’ जैसे भाव से,
निकल जाऊँ, तुझे नज़र-अंदाज़ करते।
आकृति-मूलक कला से,
अमूर्तन-चित्रकारी में तुझे,
बदलते देखने के ऐसे कितने ही,
मौकों का गवाह बनना चाहता हूँ।
जानता हूँ हासिल तो होने से रही तू मुझे,
क्योंकि बड़ा फ़र्क़ है हैसियतों में हमारी,
पर एक अदृश्य-सी ‘फ़ांस’ बनकर तेरे वजूद की,
हर वक़्त सलसलाना चाहता हूँ।
विदा हो सुर्ख़ जोड़े में जिस दिन तू,
खुशी का लाल रंग भी,
कितना उदास हो सकता है,
लोगों को दिखाना चाहता हूँ मैं।

