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ख्वाब

ख्वाब

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कभी चाँदरातों में खुले आँगन  बैठे रहें
खामोश...और सुनते रहें
एहसासों को...
हवाओं को...
पीते रहें सितारों की झीलमील ...
और चाँदनी की रुपहरी रौशनी को...
या रातरानी के नीचे...
जिसकी महकी हुई सफेद कालिन पे
बीछे हुए से हम
बस ऐसे ही अलसाये..
कल ही ऐसा ख़्वाब देखा था
 ऑफिस से लौटते वक्त
चर्चगेट -वसई लोकल मे ...
रश अवर्समे जुलझते जरा सी
आंख लग गई थी...
फ्लैट खिडकी से आसमां नहीं दिखता,
लोकल की भीड़ में से बाहर चांद नहीं दिखता..
रातरानी के फूलों की पेंटिंग  मेरे
10'12" के कमरे में लगाई है...
पलंग के दोनों छौर पे..
मैं ...
कल सब के लिए टिफिन में
क्या बनाऊँ इस सोच में...
तुम.. 
कल सुबह फास्ट या बस
और फिर मैट्रो पकडोगे...
इस सोच में....
ख़ामोश  हैं तो बस
एहसास..चांदरात ..
हवा..सितारे..
और..
ख़्वाब ...


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