STORYMIRROR

Medha Antani

Others

3  

Medha Antani

Others

कवयित्री

कवयित्री

1 min
658

रोज़ लिखना चाहती हूं,

रोज़ लिख नहीं पाती हूं


रोज़ एक खयाल उभरता है 

रोज़ एक मिसरा बनता है 

फिर भी पूरी ग़ज़ल जन्म

नहीं ले पाती

अधूरी ही वह रह जाती,


कहीं ना कहीं..


कहीं रात दिन की टक्कर में 

चूल्हे चौके के चक्कर में 

कहीं अधमांजे से बर्तन में

सब्जी वाले से अनबन में 

कहीं अलमारी की सफाई में 

चावल कंकर की छटाई में 

कहीं रोटियाँ पकाने में 

सबके टिफिन जमाने में 


कहीं इनकी उनकी ख़्वाहिश में 

सबकी बचती फरमाइश में 

कहीं घरके खर्च हिसाबों में 

धूल खाती हुई किताबों में 

कहीं ऑफिस के एक्स्ट्रा वर्क में

बच्चों के भारी होमवर्क में 

कहीं अपने फर्ज़ निभाने में 

आँसुओं को पी जाने में 


कहीं ना कहीं खो जाती है

मेरी ग़ज़ल अधूरी ही रह

जाती है 

मिसरे बनते बुनते हैं

खयाल आते रहते हैं 

पर आते ही चल देते हैं,

मेरे फुर्सत के लम्हों की तरह....


जो काग़ज़ पे जन्मी न हो

उन ग़ज़लों से कहती रहती हूं

  

रोज़ लिखना चाहती हूं 

रोज़ लिख नहीं पाती हूं


Rate this content
Log in