खुश.....हूँ
खुश.....हूँ
हां, मैं खुश हूँ।
अजीब प्रश्न है ?
क्या...... ? मैं खुश हूँ।
क्या.......? सच में मैं खुश हूँ।
अपने भीतर को टटोलता हूँ।
सबसे पहले बचपन को ही फिरोलता हूँ।
मासूमियत से भरा, भोला बचपन।
वक्त और हकीकतों के हाथ जब चढ़ा बचपन।
कितना डरा -सा, सहमा-सहमा बचपन।
किताबों को पढ़ा, पन्नों पे जिंदगी की,
हकीकतें को खोजता बचपन।
क्या, मैं खुश था।
पढ़ कर अच्छे नम्बर तो नहीं लाया था।
मां-बाप ने सपने थोपें तो नहीं,
लेकिन उन का सपना होगा तो कोई।
पर कुछ भी बन न पाया था।
झूठी खुशियों को ओढ़ के मैं,
बरसों तक शायद मुसकाया था।
फिर वक्त गुजरता गया।
उसने भी शिद्दत से मुझे आज़माया था।
अपने फर्जो को निभाते हुये भी,
सबको कितना खुश कर पाया था।
जिंदगी से एक नाराज़गी थी,
कहने को, सब खुश ही तो है।
पर भीतर की ख़ुशी कहाँ थी।
जीवन तो जीना, वन -सा है।
इस में जो खुशियों का क्षण-सा है।
उसमें ही जीते है, सभी।
हंसते है, रोते है, सभी। ।
जिसने खुद को समझा लिया।
अपने भीतर की ख़ुशी को पा लिया।
बस, वहीं सब खुशियों को पा गया।
मैं खुश हूँ, मुझे भी कहना आ गया।
हां मैं खुश हूँ, सच्ची खुशी को पा गया।