खुली किताब
खुली किताब
जो खुबिया है मुझमे, वो किसी और मे नही,
जो खामियां है मुझमे, वो किसी और मे नही।
इख्लाक़् मेरे जैसा, किसी और का नही,
मिज़ाज मेरे मेरे जैसा, किसी और का नही।
रोतो को मे हसाऊ, हसतो को मे रुलाऊ,
सच बात बोलने मे, हर्गिज् ना हिच-किचाऊ।
इसकी फ़िक्र् करु मे, उसका ख्याल रखु,
सबकी परेशानियो को, अकेले संभाल रखु।
अपना हो या पराया, कोइ ना फ़र्क् समझु,
मे जोड़ने मे सबको, खुद को कभी ना देखु।
दुख् दर्द भूलकर, मे सबके काम आऊ,
भूका हो या प्यासा, मे सबका साथ निभाऊ।
खाता मेरी ना हो, तो भी झुककर मे माफ़ी मान्गु,
हर शक्स् के दिल मे, अपनी अलग जगह् बनालु।
शॊहरत् कितनी भी मिले कभी हसरते ना रखु,
सब् भूल जाऊ ,दिल मे नफरतें ना रखु।
मिलोगे हमसे तो, कायल हो जाओगे आप भी,
इस ज़माने कि भिड़ से, मै थोडा अलग हू।
लेकिन ये मेरी बद-नसीबी, कोई ना मुझको समझे,
और शक् के दायरे मे, हमेशा मुझको रखे।
बातों को मेरी पकड़े, बदनाम मुझे कर दे,
इज़्ज़त उतार कर, पल भर मे मेरी रखदे।
जो खामिया है मुझमे वो किसी और मे नही,
जो खुबिया है मुझमे वो किसी और मे नही।
