खुद लिखती है लेखनी
खुद लिखती है लेखनी
मैं क्या लिखूँ !
खुद लिख पड़ती है लेखनी...
गीत-विहग उतरे जब द्वारे,
भीने गीतों के रस,
कंठ में डारे,
तब बजते हैं,
शब्दों के स्तम्भ,
सुर में ढलते हैं,
शब्द-शब्द !
मैं क्या लिखूँ !
फिर खुद लिखती है लेखनी...
भीगी है जब-जब ये आँखें,
अश्रुपात कोरों से बरबस झाँके,
तब डोलते हैं,
शब्दों के स्तम्भ,
स्खलित होते हैं,
शब्द-शब्द !
मैं क्या लिखूँ !
फिर खुद लिखती है लेखनी...
समुंदर की अधूरी कथाएँ,
लहरें, तट तक कहने को आए,
तब टूटते हैं,
शब्दों के स्तम्भ,
बिखर जाते हैं,
शब्द-शब्द !
मैं क्या लिखूँ !
फिर खुद लिखती है लेखनी...
