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purushottam kumar sinha

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purushottam kumar sinha

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बसंत के दरख्त

बसंत के दरख्त

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गुजर सा गया हूँ!

या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?

बसंत के ये , दरख्त जैसे!


कई रंग, अंग-अंग, उभरने लगे,

चेहरे, जरा सा, बदलने लगे,

शामिल हुई, अंतरंग सारी लिखावटें,

पड़ने लगी, तंग सी सिलवटें,

उभर सा गया हूँ!

या, और थोड़ा, निखर सा गया हूँ?

कभी था, अव्यक्त जैसे!


बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!


ये सांझ, धूमिल होने को आए,

जैसे, हर-पल, कोई बुलाए,

हासिल हुई, पनपती थी जो हसरतें 

हुई खत्म, सारी शिकायतें,

अदल सा गया हूँ!

या, और थोड़ा, बदल सा गया हूँ?

ना हूँ मैं, आश्वस्त जैसे!


बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!


दुलारे लगे, ऋतुओं के नजारे,

नदी के, दो बहते से धारे,

ओझल हुई, नजरों से वो नाव अब,

दिखने लगा, वो गाँव अब,

पिघल सा गया हूँ!

या, और थोड़ा, उबल सा गया हूँ?

नसों में, बहे रक्त जैसे!


बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!


गुजर सा गया हूँ!

या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?

बसंत के ये, दरख्त जैसे!



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