खता की दास्ता
खता की दास्ता
क्या खता की दास्ता सुनये ये दिल तू...
चल भूल जा ये दिल
उन सावान की हल्की बुंदोसे
बेपरवाह थी राह जिंदगी की जो.....
ना होगी अब उन निगाहों से रुबरु
रेत की लकीर थी जो धुआ सी
बह चली डोर जिंदगी की
संभलकर भी ना संभले जो दिल ये
गलती का भी सेहरा पहनाये जिदसे यू
जिने को वही तो एक पडाव था मंजूर सा
वहीं से भुल चले हमराही
जहां से यकिन की दस्तक थी सुनी
उसी से मुह जो फेर लिया वक्त ने
कुछ खता थी वक्त की
बेवजह जिद्ंगी यह हुई है खफा सी
भुल जा ये दिल तू भी
गलती से भी न याद कर उन्हे..
जो आये थे पलभर की जिंदगी माँगने
चौखट पर तेरी समाधी बांध कर चल दिये..
न जी ये दिल गल्त्फैमी मै खुदाई
जो खुदके अलावा कोई किसिक नही है
वहा खुदा की रहमते का दुआ कोई काम न आई...
सच कहते है नसिब उसे
गलती से भी उसकी कही गलत नही होती
हम तो सांस भी मर्जी ले तो गलती होती है...
चल छोड वो गली फिकर की
जिन्हे आदते नही तेरे जिन्दा होने की
उनकी किस बात का करे तू खयाल क्यो...।