कच्ची मिट्टी वाले गाँव
कच्ची मिट्टी वाले गाँव
पक्की दीवारों में, वह भाव नहीं होते,
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गांव नहीं होते...।
साँझ सवेरे दीपक ज्योति
हाँ सच है अब भी है होती,
बसी हुई है मन में तृष्णा,
बोलो कैसे मिलेंगे कृष्ण...
नदी किनारे पायल वाले पाँव नहीं होते...
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गाँव नहीं होते...।
पक्की दीवारों में, वह भाव नहीं होते,
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गाँव नहीं होते...
बातें मधुर मुस्काते अधर,
चौपाले थीं इधर-उधर...
सखियों संग इतराती बेटी,
चाची ताई की घुल-मिल रोटी,
सावन वाले झूलों में परिहास नहीं होते...
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गाँव नहीं होते...।
पक्की दीवारों में वह भाव नहीं होते,
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गांव नहीं होते...।
झाँझ मंजीरा ढोलक तालें,
गाना गाते ओढ़ दुशाले,
जब भी बनती कहीं मिठाई,
आस-पड़ोस ने मिलकर खाई,
पंच और परमेश्वर के चुनाव नहीं होते...
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गाँव नहीं होते...।
पक्की दीवारों में वह भाव नहीं होते,
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गाँव नहीं होते...
जो कागज की नाँव बनाते,
जाने कहाँ गए वह बच्चे...
गोली बिस्कुट चूरण खर्चा,
चोर सिपाही वाला पर्चा,
चाचा ताऊ की मूछों पर ताव नहीं होते...
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गांव नहीं होते...।
पक्की दीवारों में वह भाव नहीं होते...
अब वह कच्ची मिट्टी वाले गाँव नहीं होते...।
