कबी का जीवन
कबी का जीवन
कभी उड़ता गगन में
कभी धुंडता दरिया से
पाया प्यार का संधान
सीप को मोती बनाकर
समर्पित किया दरबार में
दिया की समान
यही तेरा जीवन।
लोक पागल समझते
पत्नी पल पल मे डांटते
कभी नाराज लगती
कभी दया दृष्टि में देखती
कहती छोड़ दो बिचरा को
सारी जीवन बेकार मेरी
तकदीर लिखा जो।
बेटी चलगई ससुराल
बेटा कहता पापा बेकार
गुजुरबो के नजर मे
इर्सा कभी सत्कार
झूमता गिरता संसार।
जब चलता भीड़ मे कभी
तब बार बार ठोकर मिलता
कब पहचाने बाले
मुखुडा खोलकर कहता
क्यों, तुम कहां चलगए
दिखाई नहीं दिया
मेरा बेटा को सादी होगया
निमत्रन नहीं करपाया।
अलबेला सा ए जीवन
रूखा सूखा भोजन
कभी जहर को पी लिया
कभी अपना भाबो से
सूरज को डूबा देता
क्या कहूं मेरा पागलपन
यही है कवि का जीवन।