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कभी यूँ भी होता

कभी यूँ भी होता

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कभी यूँ भी होता कि
मैं गुज़रे वक़्त में जाकर
किसी कोठे में
देखता मुज़रा सुनता ग़ज़ल
छलकाता जाम उछालता अशर्फियाँ
तवायफ के सुर्ख लाल होंठों से
सुलगाता हुक्के का तम्बाकू
भर के हरेक कश फूंक डालता
अपने जिस्म की आग को।

या कभी यूँ भी होता कि
किसी गली, चौराहे या बस स्टॉप पर
खड़े होकर घंटों देखता रहता
आती जाती चाँद सी परियों को 
उनको घूरता फब्तियां कसता और 
पीछा करता उनके सहमे कदमों का 
ढूंढ लेता पता अपने ठिकाने का....

या कभी यूँ भी होता कि
शहर के लाल चौक पर जाकर
इकट्ठा हुई भीड़ में चीखकर
देता अश्लील गालियां फेंकता पत्थर 
कुचलता मासूम चप्पलें फूंकता दुकानें
जलाता गाड़ियाँ भोंकता चाकू और
लाशों की खुली आँखों में देख पाता
भीतर के शैतान को।

या कभी यूँ भी होता कि
निकल पड़ता नंगे पैर खाली ज़ेब
छानता सड़क की गर्म गर्म धूल
सुखाता लहू गलाता हड्डियाँ
मिलाकर नज़र आसमां से 
चुनौती देता मौत को और 
हो जाता मौत के बहुत करीब।

मगर अब जब ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ और
मैं आज भी रोज़ उठता हूँ सवेरे
निकलता हूँ कमाने खुशियाँ
लौटता हूँ बेचकर अपनी ख्वाहिशें
तब दिन भर की झूठी हंसी हंसने से थककर
बदलता रहता हूँ करवटें सिर्फ इस उम्मीद में 
कि काश आ जाएँ कुछ ऐसे सपने 
जिनमें कुछ देर के लिए ही सही
सब कुछ मेरी जिंदगी, मेरी हंसी 
मेरे आँसू की तरह बनावटी न हो......

 

 

 

 

 


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