कभी किसी ने देखा है माँ को
कभी किसी ने देखा है माँ को
कभी किसी ने देखा है माँ को
कभी किसी ने माँ को रोते
रात को सोते
बंवडरों में होश खोते
जिम्मेदारियों से मुख मोड़ते देखा हैं।
आज को कल पर छोड़ते
दिल किसी का तोड़ते
बीज छल-कपट का बोते
सब्र-संतोष खोते देखा हैं।
माँ के लिए बच्चों को बड़े होते
बच्चों के लिए माँ को बूढ़े होते
संतान पीड़ा में चैन से रहते
बस में नहीं मेरे कहते देखा हैं।
मैंने देखा है माँ को
मेरे बच्चें-मेरे बच्चें रटते
दिन-रात उनके लिए खटते
स्वयं से मोह भंग करते
परिवार के रंग में रंगते।
बच्चों की परछाई बनते
आसमाँ की ऊँचाई बनते
पतंगों की डोर को कस कर पकड़ते
मुसीबतों से हँस कर लड़ते।
दुनिया के उठते सवालों का जवाब बनते
स्याह काली रातों में आफताब बनते
कठिन डगर में उम्मीद का ख्वाब बनते
परीक्षा में खुली किताब बनते।
हाँ ! मैंने देखा है माँ को
बिखरते हुए जीवन में
अडिग विश्वास का ख्वाब बनते।