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Mayank Kumar

Abstract

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Mayank Kumar

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कभी-कभी थोड़ा ज्यादा ही

कभी-कभी थोड़ा ज्यादा ही

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मेरे अंदर वह बोलता है

कभी-कभी थोड़ा ज्यादा ही

मेरी कुछ रातों को ढकेलता है

कभी-कभी थोड़ा ज्यादा ही

सुनो भी, कुछ और कहना है !

मुझे थोड़ा नहीं, पूरा ही वह

अपने अंदर पिघलाता रहता है

मैं कठोर हो गया हूं क्या ?

कभी-कभी थोड़ा ज्यादा ही

सवेरे शाम की वादियों में

मैं खूब जागा हूं मन ही मन

लेकिन लोग कहते हैं अक्सर

मैं सोया था कई पहर में,

कभी-कभी थोड़ा ज्यादा ही

वह बेवजह ही तलाश कर रहा

मेरी आंखों के पुराने नीर को...

जो गिरा था कभी अपने खास,

बचपन में छोड़ गए ध्रुव तारे के लिए

कभी-कभी थोड़ा ज्यादा ही ।



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