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Dayasagar Dharua

Abstract

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Dayasagar Dharua

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काफी बेहतर

काफी बेहतर

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कर सके न तंग अब कोई परेशानी

तोडने को मुझे रखी थी जिन्होंने ठानी

फेर दी उनकी हर कोशिश पे मैंने पानी

है लगता पहले से काफी बेहतर,

जी रहा हुँ बेझिझक अब मैं मनमानी।


जैसे सूख गयी नदीया जो थी गाढ़ी-खारी

जैसे बादले गम-नामी बरस चुकी हों सारी

और बहे मिठी जलधारा संग मछलीयां प्यारी

है लगता पहले से काफी बेहतर,

जैसे हट रहे घनी-कोहरें नन्हीं पत्तों पे जो थे भारी।


आज न जाने काफ़ी देर से मेरी नींद टुटी

जैसे गहरी निंदों से था भरा सपनों की पेटी

पिछले रातों से कल की नींद थी काफ़ी मोटी

है लगता पहले से काफी बेहतर,

वीरान आँखों में फिरसे सपनों की भीड जो लौटी।


जैसे गुंज उठी हो मक्खीयों की फिर से बोली

जैसे महकती-हवा में फुलों की प्यार हो फैली

और तभी सैर पे निकली हो भँवरों की कोई टोली

है लगता पहले से काफी बेहतर,

जैसे सुखे पेड पर नई कलीयाँ हो दुबारा खिली।


अब जी करे मछलीयों के साथ लगाऊं डुबकी

बह जाऊं टेढी-धारों में जैसी नदिया जाए बहकी

भँवरों की टोली में चुम जाऊं अधरें फुलों की

है लगता पहले से काफी बेहतर,

वैसे ही जैसे नई सुबह पे जाती चिडिया चहकी।


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