काली
काली
ना ही पाक ना पवित्र ,
ना ही पूजनीय कोई देवी समान
मैं हूं एक आम जन सी ,
क्यूं ना वैसी ही बरती जाऊं?
ये मेरा आवाह्न....
जगत जननी बना के जो पूजते हो मुझे,
क्यूं दुत्कारी जाती हूं हर जगह ..
जब मैं भी स्त्री वैसी समान
चलती फिरती मूरत सी हूं मैं
क्या नहीं मेरा कोई सम्मान,
कथनी करनी में बड़ा अंतर..
हर जन यहां दोगला है
जिसकी उतारे आरती मंदिर में
घर में उसे ही तिरस्कृत किया है,
सभ्य बन के अपना रुतबा दिखाए दुनिया में
ये वही भक्षक है जो कुचले नारी को कोने में
ना संभला है कभी न आगे कोई आशा है
ये हमेशा गिरा है और धरा में धंसा है,
ना मिले इसे कोई गोद ना मिले इसे कोई छाया
नारी ने धरा रूप प्रचंड लहराई जैसे साया
पटका उठा कर पृथ्वी पे, हुआ अहंकार धुंआ धुंआ
अपनी ज्वाला से किया भस्म, ना छोड़ा कोई निशान
हर दुष्कर्म का अंततः होता यही परिणाम।
