ज्वाला
ज्वाला
चुभ रहीं थी वो चूडियाँ
जिनकी खनक पर कभी वो इतराती थी
घोंट रही थी गला वो काले मोती की माला
जिसे वो पूजती थी तुलसी की कंठी से बढ़कर
बह रहा था रक्त की तरह वो लाल रंग
जिसे हर सुबह सजाती थी अपने भाल पर
बेड़ियां बन गई थी वो पायलें
जिन्हें पहन रूनझुन करती घूम आती थी पूरे घर में
पिटते -पिटते शरीर के घाव पहुंच गये थे आत्मा तक
अब उसे कुचली हुई लग रही थी अपनी आत्मा
पोंछकर आंसू वो उठ खडी़ हुई और उतार फेंकी सुहाग की सभी निशानियां
भारी भरकम बोझ से मुक्ति पा वो अब महसूस कर रही थी हल्का बहुत हल्का
बदले की अग्नि में होम कर अपनी मासूमियत
बन गई थी वो ज्वाला जो भस्म कर सकती थी
सुनो! उसका मासूम कली से ज्वाला बनना तुम्हारे अन्त का आगाज है .........
