ज़रूरत और मज़बूरी!
ज़रूरत और मज़बूरी!
होती है, इंसान में ही चीज़ दो ऐसी
जो आवश्यकता से अधिक बढ़ जाए,
तो गुनाह ही करा देती।
पहली है ज़रूरत और दूजी मज़बूरी
ज़रूरत वो चीज़ है जो
इंसान में कभी ख़त्म नहीं होती।
ज़रूरतों को बढ़ावा देने में
इंसान की ही है गलती।
कभी साधनों की उपस्थिति में
ज़रूरत हो जाती है पूरी,
तो कभी किसी कारण यह रह जाती है अधूरी।
इन अधूरी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए,
इंसान कर जाता है कोई गुनाह
और इस गुनाह के पीछे
छिपी होती है मज़बूरी।
मज़बूरी कोई हवा नहीं है जो
कहीं से भी चली आती।
मज़बूरी तो इंसान को
गुनाहगार बनाने वाली
वह गुनाह है जो इंसान में
फिजूल की ज़रूरत
पैदा होने पर है आ जाती।।
{ कभी अपनी छोटी से छोटी ज़रूरतों को इतना महत्व मत दो कि वह कभी पूरा ना हो पाए,
तो उसे पूरा करने की चाह में कोई गुनाह कर अपने आप को गुनाहगार बना बैठो }
कहते हैं...
"ज़रूरत मज़बूरी की जननी और
गुनाह गुनाहगार का जनक है।।"