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Aanchal Soni 'Heeya'

Abstract

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Aanchal Soni 'Heeya'

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सुन! साधु, औघड़, सन्यासी ...

सुन! साधु, औघड़, सन्यासी ...

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सुन! साधु, औघड़, सन्यासी 

मोह-माया मुक्त मुसाफ़िर रे !

ले चल मुझको आन देश,

यहां की भोर भई अब बासी रे।


यहां की मिट्टी दूषित भई अब,

इसे मिट्टी नहीं धूल पुकारे सब।

यहां की हवाएं में छल-कपट

मोह-माया युक्त प्रदूषण रे।


सांसारिक मोह-माया से दूर 

ले चल मुझको तू दूर शहर।

ढूंढ डगर उस बस्ती का तू जहां 

श्रृंगार का भी न हो कोई साथी रे।


सुन! साधु, औघड़, सन्यासी 

यहां की भोर भई अब बासी रे!

तू ले चल मुझको आन देश

यहां की सांस भी मुझ पर भारी रे।


ले चला आ एक औघ ऐसा तू 

जिसमें छल-कपट सारे बह जाएं।

हो रफ़्तार बहाव में तेरी की

भवन मोह-माया के ढह जाएं।


उस औघ में तू मुझको भी समेटे ले

बहा संघ अपने कहीं दूर धकेल दे।

हो कोलाहल से दूर बस्ती एक ऐसा 

जहां हों प्रकृति के असली वासी रे !


एक निशा तू कान्हा हित सा करना 

सबको गहरी निद्रा दे चलना।

ज्यों ही भोर भए पूर्व उससे

सबकी स्मृति से मेरा हिस्सा ले चलना।


जो फ़िर भी कोई ना भुला पाए 

प्रश्नों का बाण चला जाए।

जो पूछ बैठे कुटुंब सदस्य हमारे 

कहां गई मेरी सुता रे ?


तो कह देना कल औघ आया था 

उसमें बह गई तेरी सुता रे!

जो पूछ बैठे मेरे प्रेम का साथी 

कहां गई मेरी हृदय वासी रे! ?


तो कह देना.....

शृंगार रस एवं मोह माया मुक्त 

वह बन बैठी एक मुसाफ़िर रे !

माया मुक्त होना छल ना समझ तू

वह तो तेरे आत्म सदन की वासी रे !


सुन! साधु, औघड़, सन्यासी 

मोह-माया मुक्त मुसाफ़िर रे !

ले चल मुझको आन देश

यहां की भोर भई अब बासी रे !


इसी जगत बीच एक कोना ऐसा भी 

जहां सुख, शांति, समृद्धि हो।

ना हो कोई कोलाहल मचाने को 

बस कण में गूंजती पुकार आत्मिक हो।


ऊपर देखूं तो नीला गगन हो 

नीचे देखूं तो मनमोहन चमन हो।

अगल देखूं तो पर्वत हो साथी 

बगल देखूं तो नदियों का पानी।


पीछे देखूं तो महसूस होती हवाएं 

सामने देखूं तो वह दूर दिशाएं।

उन दूर दिशा को नापन खातिर

मैं अकेले पथ पर चलती जाऊं।


पल-पल हर कदम पर मैं 

शांति सुकून की अनुभूति पाती जाऊं ।

किसी स्थिर सन्यासी की भांति नहीं 

मैं घुमंतू मुसाफ़िर बनती जाऊं।


सुन! साधु, औघड़, सन्यासी 

मोह-माया मुक्त मुसाफ़िर रे !

ले चल मुझको आन देश 

यहां की भोर भई अब बासी रे !!



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