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Vibhav Saxena

Abstract

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Vibhav Saxena

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जन्नत की सैर

जन्नत की सैर

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एक दिन जन्नत में जाने का मुझे मौका मिला,

देखे जो नजारे दिल में खुशी का फूल खिला।


हर तरफ सुख ही सुख का घेरा था वहाँ पर,

कहाँ दु:ख-परेशानियों का डेरा था वहाँ पर?


घूमते ही घूमते मुड़ गया मैं फरिश्तों की ओर,

क्योंकि मेरे मन में उठा था सवालों का शोर।


मैंने पूछा कि धरती पे ऐसा सुकून कैसे आये,

क्या आपकी नजर में है इसका कोई उपाय।


उन्होंने एक साथ मुझसे कई सवाल पूछ डाले,

जिनको सुनकर मेरे मुंह पर जैसे लग गये ताले।


तुम्हारे जहां में आज ये सब क्या हो रहा है?

इंसान ही क्यों इंसान का दुश्मन हो रहा है?


जाने क्यों तुम लोग धर्म और जाति में बंटे हो,

पड़ोसी होकर भी एक दूसरे से कटे कटे हो।


कभी भाषा तो कभी क्षेत्र के लिए लड़ जाते हो,

छोटी-सी बात पर भी आपस में भिड़ जाते हो।


अहंकार और स्वार्थ ही सब कुछ हो गया है,

प्रेम तथा बंधुत्व तो जैसे कहीं पर खो गया है।


धरती को तुम लोगों ने रहने लायक नहीं छोड़ा,

प्रकृति का कोई नियम नहीं जो तुमने नहीं तोड़ा।


अब भी समय है जागकर इंसान बन जाओ,

एक बार फिर से धरती को ही स्वर्ग बनाओ।


सपने से मैं जागा तो यही समझ में आया, 

स्वर्ग यहीं है नर्क यहीं है जैसा हमने बनाया।


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