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जलन

जलन

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रात जब बनठन के 

उतर आते हो 

मेरी बालकनी के 

सामने वाले पोखर में

मचल सी उठती हूँ 

निहारते तुम्हें 

टकटकी बाँधे 

हथेलियों पर चेहरा टिकाये

आँखें जमाये

पलकें उठाये

देखती रहती हूँ तुम्हें

चाँद ओ मेरे पोखर के चाँद

अचानक कहीं से

एक मनहूस ख़्याल 

गुज़रता है मेरे मन में

मेरी तरह ही और कोई 

तकता होगा तुम्हें कहीं से

मन उचाट सा हो जाता है

व्याकुल सी हो जाती हूँ मैं

तब जी करता है मेरा

इस चाँद को पत्थर मार कर

चकनाचूर कर दूँ

पोखर में धँसा दूँ

अंधेरा कर दूँ चारो ओर

अंधी हो जाऊँ मैं

जी करता है।


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