जिंदगी
जिंदगी


मुझ को ये जिंदगी न जाने क्यों लगती है अजनबी सी
कहीं छाँव ही छाँव है तो कहीं धूप ही धूप
क्यों हर जगह छाँव और धूप एक साथ
नहीं हो सकती?
कहीं खुशियों की रिमझिम बारिश है
तो कहीं गम के बादल
क्यों हर जगह खुशियों की बारिश नहीं हो सकती?
कहीं धन, दौलत, ऐशो ,आराम है
और कहीं दो वक्त की रोटी भी मुश्किल
कहीं छल, कपट, झूठ, भ्रष्टाचार है
तो कहीं सच्चाई, ईमानदारी, विश्वास, प्रेम है
क्यों हर जगह सच्चाई और
ईमानदारी नहीं हो सकती?
कहीं शिक्षा एक व्यापार है
तो कहीं शिक्षा एक सेवा
क्यों हर जगह शिक्षा एक सेवा नहीं हो सकती?
कितनी भिन्न है ये जिंदगी
मुझको तो यह लगती न जाने क्यों
अजनबी सी ये जिंदगी
फिर भी समझो तो अच्छी
वरना पहेली सी ये जिंदगी