जिन्दगी
जिन्दगी


हर वक्त जद्दोजहद में
उलझे रहे हैं हम,
लंबी बड़ी थी जिंदगी
दिन पड़ गए हैं कम।
किस किस को संभाले
किस किस को मनाए,
रिश्तो के मकड़जाल
को बुनते रहे हैं हम।
बस सोचते ही रह गए
हर रोज हर घड़ी,
हाथों से फिसली रेत
मलते रहे नयन।
बैठेंगे कभी पास
फुर्सत में दो घड़ी,
बाटेंगे थोड़ी खुशियां
और थोड़े गम।
बेबसी लाचारी
और एकाकीपन
कांपे है बूढ़ा तन
और आँखें हैं नम।