STORYMIRROR

संजय असवाल

Abstract

4.7  

संजय असवाल

Abstract

जिंदगी पहले सी नहीं रही..!

जिंदगी पहले सी नहीं रही..!

1 min
452


यूं ही बैठे बैठे 

अनायास

अतीत के पन्नों में 

कुछ खोजने लगा था,

कुछ था मेरे पास 

जो अब कहीं खो गया है।


हाथ खाली हैं मेरे

और मैं उलझ सा गया हूं,

जितना आगे बढ़ने की सोचता

रात की तन्हाइयां 

मुझे घेर लेती हैं 

और मैं खुद को 

वहीं फंसा हुआ पाता हूं ...!


बेबस घबराया 

अब खुद से भाग रहा हूं

क्यों 

कहां तक 

मुझे नहीं पता...?


हर तरफ अंधेरा छाया है

और मैं उस गहरे अंधकार में 

डूबता जा रहा हूं,

मेरे पांव थम से गए हैं 

मैं इस धुंधले

मगर खामोश 

उदासी में उदास रहने लगा हूं,

मैं भीगना चाहता हूं

अपन

े आंसुओं में.....!

बहना चाहता हूं 

शांत समुंद्र में....!


तोड़ कर निकलना चाहता हूं 

अपने आवरण से 

जो रहस्यमयी है मेरे लिए...!

पर मुश्किलों भरा सफर 

हर ओर मुझे जान पड़ता है,

जिंदगी श्याही की तरह 

फैल गई है


जो कालिख बन 

दिल में चुभ रही है,

कुछ बिखर रहा है 

तिनका तिनका टूट रहा है, 

उलझने भी अब और 

उलझती जा रही हैं

कोई सिरा ढूढने से

नहीं मिल रहा है,


जिंदगी के हर दांव

असफल हो रहे हैं,

जुंवारी ....

सब कुछ लुटा कर 

खाली हाथ बैठा 

बस जीने की 

दुआ मांग रहा है

और वो उसे नसीब हो

ये सब नियति पर है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract