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PRADYUMNA AROTHIYA

Abstract

3.6  

PRADYUMNA AROTHIYA

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जिंदगी की सीख

जिंदगी की सीख

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जिंदगी थम कर

फिर से चलने लगी,

नए रंग और रूप में

चेहरे ढ़लने लगी।


वह दौड़ती रही 

बेफिक्र होकर गलियों में,

कोई नहीं था अपना

फिर भी खोजती रही

अक्स अपना 

उम्मीदों के सायों में।


जब रुकी थी वह

कोरोना काल में,

अपनों को देखा 

न जाने कितने साल में।

जिंदगी का उद्देश्य

सिर्फ पैसा ही नहीं,

अपनों के अहसास को 

खोना जिंदगी तो नहीं।


घर से ऑफिस

ऑफिस से घर,

सिमटी सी नजर आती

हर मोड़ पर

अपने ही ख्यालों में

जिंदगी अक्सर।


जिंदगी बस चलती बस चलती रही,

झूठी सी हँसी लेकर

अतीत के सायों के

साथ जीती रही।


बहुत कुछ सीखा 

जिंदगी ने कोरोना काल में,

अपनों के साथ दूरदर्शन

रसोई घर की महक

बचपन का अपना हुनर

अपनों के साथ खेल का आनंद

अपनों के साथ मिलकर खाने का मजा


और जिंदगी ने नया आयना देखा 

इस कोरोना काल में।

वो गुजरा वक़्त

नया सवेरा आया

जिंदगी ने जीने का नया सलीका पाया,

अपने और अपनों के लिये

जिम्मेदारियों का अहसास पाया।


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